प्रदीप
चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रतिपादित जैव विकास के सिद्धांत (थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन) को उस कोविड-19 महामारी के बहाने सिलेबस से हटाया गया, जिसका कारण ‘कोरोना वायरस’ वास्तव में उसी ‘प्राकृतिक चयन’ (नेचुरल सिलेक्शन) प्रक्रिया का ही परिणाम है जिसे डार्विन ने अपने जैव विकास के सिद्धांत के जरिए समझाने की कोशिश की थी. इस थ्योरी को न पढ़ाए जाने का निर्णय अपने में कई खतरे लिए हुए है.
एनसीईआरटी ने दसवीं कक्षा के विज्ञान के सिलेबस से चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रतिपादित जैव विकास के सिद्धांत (थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन) को स्थाई तौर पर हटा दिया है. गौरतलब है कि एनसीईआरटी ने कोविड-19 महामारी के दौरान छात्रों पर पढ़ाई के बोझ को कम करने के लिए दसवीं कक्षा की टेक्स्ट बुक से नौवें अध्याय ‘हेरेडिटी एंड इवोल्यूशन’ (आनुवंशिकता एवं जैव विकास) से ‘इवोल्यूशन’ (जैव विकास) को हटाकर केवल ‘हेरेडिटी’ (आनुवंशिकता) कर दिया था. शुरुआत में माना जा रहा था कि इसे सिर्फ एक शैक्षणिक सत्र के लिए अस्थाई रूप से हटाया गया है और जब महामारी के बाद जिंदगी वापस पटरी पर लौटगी तो ‘थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन’ को दुबारा पढ़ाया जाने लगेगा लेकिन अब खबर है कि एनसीईआरटी ने इसे स्थाई तौर पर सिलेबस से हटा दिया है.
दसवीं कक्षा की विज्ञान की किताब से ‘थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन’ को हटाए जाने के फैसले को लेकर 1800 से ज्यादा वैज्ञानिकों, विज्ञान शिक्षकों और विज्ञान संचारकों ने एक खुले पत्र पर हस्ताक्षर कर एनसीईआरटी से इसे दोबारा सिलेबस में शामिल करने की मांग की है. इस पत्र में कहा गया है कि जैव विकास की प्रक्रिया की समझ वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास और तर्कसंगत विश्वदृष्टि के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण है. जिसतरह से डार्विन के श्रमसाध्य अवलोकन और उनकी गहन अंतर्दृष्टि ने उन्हें प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के लिए प्रेरित किया, वह छात्रों को विज्ञान की प्रक्रिया और आलोचनात्मक चिंतन (क्रिटिकल थिंकिंग) के महत्व के बारे में शिक्षित करता है. विज्ञान की इस बुनियादी खोज को जानने से वंचित रहने पर छात्रों की विचार प्रक्रिया गंभीर रूप से प्रभावित होगी.
ब्रेकथ्रू साइंस सोसायटी द्वारा जारी प्रेस रिलीज के मुताबिक भारतीय छात्रों का केवल एक छोटा हिस्सा ही ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय का चुनाव करता है और उससे भी छोटा हिस्सा जीव विज्ञान (बायोलॉजी) को अपने विषय के रूप में चुनता है. इन परिस्थितियों में दसवीं कक्षा के सिलेबस से जैव विकास की प्रमुख अवधारणाओं को हटाने के फलस्वरूप ज्यादातर छात्र इस महत्वपूर्ण हिस्से से वंचित रह जाएंगे.
दिलचस्प बात यह है कि 2018 में केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा था कि डार्विन का जैव विकास का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है क्योंकि ‘हमारे पूर्वजों ने कहीं भी लिखित रूप से या मौखिक तौर पर यह जिक्र नहीं किया है कि उन्होंने किसी बंदर को इंसान में बदलते देखा. जब से धरती पर इंसान को देखा गया, वह हमेशा से ही इंसान था.’ वैज्ञानिक समुदाय द्वारा आलोचना किए जाने पर सत्यपाल सिंह ने बाद में अपनी टिप्पणियों का बचाव करते हुए कहा कि ‘किसी अन्य व्यक्ति के नजरिए की निंदा करना वैज्ञानिक भावना नहीं है.’ उन्होंने जोर देकर कहा कि स्कूलों और कॉलेजों में जैव विकास के सिद्धांत को पढ़ाना बंद कर देना चाहिए. डार्विन के सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि सत्यपाल सिंह भले ही अब शिक्षा मंत्रालय में नहीं हैं लेकिन उनकी जो इच्छा थी उसे एनसीईआरटी अब लागू कर रही है.
जैव विकास के सिद्धांत का ज्ञान न सिर्फ आधुनिक जीव विज्ञान की कई उप-शाखाओं जैसे आनुवंशिकी, इम्यूनोलॉजी आदि को समझने के लिए जरूरी है, बल्कि हमारे आसपास की दुनिया को समझने के लिए भी महत्वपूर्ण है. डार्विन के जैव विकास के सिद्धांत की बदौलत विज्ञान ने एक बहुत बड़ी छलांग लगाई है. इसने यह स्थापित किया कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति में किसी बाहरी या अंदरूनी दिव्य शक्ति या रचयिता का कोई भी हाथ नहीं है बल्कि जीवन की उत्पत्ति रासायनिक अभिक्रियाओं और भौतिक प्रक्रियाओं के चलते हुई, और वह भी निर्जीव पदार्थों से!
यह एक विडंबना ही है कि इसे उस कोविड-19 महामारी के बहाने सिलेबस से हटाया गया, जिसका कारण ‘कोरोना वायरस’ वास्तव में उसी ‘प्राकृतिक चयन’ (नेचुरल सिलेक्शन) प्रक्रिया का ही परिणाम है जिसे डार्विन ने अपने जैव विकास के सिद्धांत के जरिए समझाने की कोशिश की थी! प्राकृतिक चयन के अंतर्गत सभी जीव-जंतुओं के मूल में दो प्रेरणाएं काम करती हैं – खुद की रक्षा और प्रजनन. सभी जीव-जंतु अपने आप को सुरक्षित रखते हुए लगातार इसी कोशिश में रहते हैं कि उनकी ज्यादा से ज्यादा संतानें संसार में सफलतापूर्वक जिये. डार्विन ने हमें बताया कि प्राकृतिक चयन यानि प्रकृति में स्वत: चलने वाली चयन प्रक्रिया से संसार के ज़्यादातर जीवों की उत्पत्ति हुई है. प्राकृतिक चयन का सिद्धांत बताता है कि कौन-सी शक्तियां विकास की दशा का चुनाव करती हैं.
अपने अस्तित्व को बनाए रखने की प्रतिस्पर्धा में जो प्रजातियां जिंदा रह जाती हैं, वे ही अगली पीढ़ी का प्रजनन करती हैं. दरअसल, जीव-जंतुओं के आसपास का वातावरण ही यह निश्चित करता है कि कौन-सा प्राणी जिंदा रहकर अपनी पीढ़ी को आगे बढ़ाएगा और कौन-सा प्राणी अपनी नस्ल को आगे बढ़ाने के लिए ज़िंदा नहीं रह पाएगा. प्राकृतिक चयन का सिद्धांत हमें यह समझने में मदद करता है कि कोरोना जैसी कोई महामारी कैसे आगे बढ़ती है या कुछ जैव प्रजातियां विलुप्त क्यों हो जाती हैं.
डार्विन के जैव विकास के सिद्धांत की बदौलत हम स्वयं को, जीवन को और अपनी मौजूदा सभ्यता को अधिक व्यापक नजरिए से देख सकें. यह हमें बताता है कि इंसान विकास की संभावना से रहित अंतिम रुप से रच दिया गया उत्पाद नहीं है. बल्कि उसका एक लंबा अतीत है, और यह इतिहास पतन का नहीं, बल्कि विकास का है. उसके लिए उत्थान के दरवाजे अब भी खुले हुए हैं. जैव विकास के सिद्धांत से हम धीरज रखना भी सीखते हैं. धरती पर इंसान का वजूद लाखों सालों से है और जीवन के विकास का क्रम अरबों सालों से चल रहा है, लिखित इतिहास के कुछ हजार साल उसकी तुलना में कुछ भी नहीं हैं.
जैव विकास के सिद्धांत से जीव विज्ञान में क्रांति आई और इसकी खूब आलोचना भी हुई. लेकिन पिछले करीब 200 सालों में जैव विकास के समर्थन में नए-नए साक्ष्य सामने आते गए और आज यह विज्ञान जगत में सबसे ज्यादा मान्यता प्राप्त सिद्धांत बन गया है. जैव विकास के सिद्धांत की बदौलत हम हैं कौन? कहां से आए हैं? कहां जा रहे हैं? जैसे बुनियादी सवालों के अब तक जो जवाब मिले हैं, वे काफी समृद्ध और ठोस हैं. जैव विकास का सिद्धांत आधुनिक जीव विज्ञान का मूल आधार है और जैव विकास की प्रक्रिया को समझना वैज्ञानिक नजरिए के विकास के लिए बेहद जरूरी है. सुप्रसिद्ध जीव विज्ञानी थियोडोसियस डोबझान्सकी ने कहा था कि, ‘जैव विकास के सिद्धांत का प्रकाश न हो तो जीव विज्ञान में कुछ भी संगत नहीं लगता.’ तो फिर इस प्रकाश से अपने छात्रों को वंचित करके भला हमें क्या फायदा होगा?
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)
(‘न्यूज़ 18 हिंदी’ के साभार )