वेदप्रिय

देश में संविधान सम्मत, वैज्ञानिक मानसिकता के विकास एवं विस्तार के लिए ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क (AIPSN) द्वारा इन दिनों नेशनल साइंटिफिक टेंपर कैंपेन (राष्ट्रीय वैज्ञानिक चेतना अभियान) चलाया जा रहा है, जो राष्ट्रीय विज्ञान दिवस, 28 फरवरी 2024 तक चलेगा। इसका उद्देश्य अवैज्ञानिक सोच, अंधश्रद्धा, अंधविश्वास की जगह वैज्ञानिक सोच-समझ को बढ़ावा देना एवं देश में तर्कशील, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष एवं श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों को आगे बढ़ाना है। ऐसे में कुछ वैज्ञानिकों की जीवनियां प्रेरणादायक हो सकती हैं। प्रस्तुत है हरियाणा के प्रमुख विज्ञान लेखक श्री वेदप्रिय का, महान वैज्ञानिक माइकल फैराडे पर एक विशेष आलेख। फैराडे ने ऊंची शिक्षा, बड़ी डिग्री के बिना तथा कठिन अभावों के बीच भी अपनी खास पहचान बनाई तथा महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन के भी प्रेरणास्त्रोत बने।


महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन के अध्ययन कक्ष की दीवारों पर सर आइज़क न्यूटन, जेम्स क्लर्क मैक्सवेल और महात्मा गांधी की तस्वीरों के साथ माइकल फैराडे की भी तस्वीर लगी हुई थी। आइंस्टाइन का कहना था कि वे इनके प्रेरणा स्रोतों में से हैं। इनमें से माइकल फैराडे ही एकमात्र ऐसे वैज्ञानिक थे जिनके पास ऊंची पढ़ाई तथा बड़ी डिग्रियां नहीं थी। एक वैज्ञानिक बनने के लिए औपचारिक ऊंची शिक्षा या डिग्रियों का होना कोई पूर्व शर्त नहीं है। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं।यदि आपके पास कल्पनाशीलता, सृजनात्मकता, जिज्ञासा एवं सूक्ष्म अवलोकनदृष्टि है तो आप किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ सकते हैं ।

फैराडे का जन्म इंग्लैंड के पास एक गांव सुरे में 12 सितंबर 1791 को हुआ। इनकी माता का नाम मार्गरेट एवं पिता का नाम जेम्स फैराडे था। इनकी माताजी शादी से पहले एक घरेलू नौकरानी के रूप में काम करती थी। इनका परिवार आर्थिक दृष्टि से काफी कमजोर था। फैराडे अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए कहते थे कि वे भी दिन थे जब वे पूरे सप्ताह भर एक डबल रोटी में गुजारा करते थे। फैराडे अपने माता-पिता की चार संतानों में तीसरे नंबर पर थे। इनका पुश्तैनी काम लोहार का था। रोजी-रोटी की तलाश इन्हें लंदन शहर में ले आई। यहां लंदन की गलियों में घूमते- फिरते और काम करते हुए इन्होंने अभावों में अपना बचपन गुजारा। बड़ी मुश्किल से इन्होंने चर्च के संडे स्कूल में अपनी आरंभिक स्कूल तक की पढ़ाई की। उन्होंने 13 वर्ष की आयु तक ही कुछ पढ़ना- लिखना सीखा। परिवार की जरूरत इन्हें बाल श्रम पर ले गई। यहां इन्होंने अखबार बांटने का काम शुरू किया। 14 वर्ष की आयु में इन्हें एक स्थानीय जिल्दसाज एवं पुस्तक विक्रेता जार्ज रीबा की दुकान पर एक प्रशिक्षणार्थी के रूप में छोटा- सा काम मिल गया। उनके पास इन्होंने 7 वर्ष तक काम किया। वहां काम करते हुए फैराडे ने पुस्तकों का अध्ययन शुरू किया। जो भी पुस्तक इन्हें अच्छी लगती, जो जिल्द के लिए आती, उन्हें वे रात को पढ़ लेते थे और अगले दिन जिल्द चढ़ाकर मालिक को दे देते थे। इसके लिए भी इन्होंने अपने मालिक की इजाजत लेनी पड़ती थी। इसके लिए वे अपने मालिक का आभार करते कि उन्हें यह अवसर दिया गया है। फैराडे ने इस प्रकार द्वितीय स्तर की पढ़ाई की जो कि विद्यालयी शिक्षा नहीं थी। यहां रहते हुए इन्होंने जेन मार्सेट की एक पुस्तक ‘रसायन विज्ञान पर बातचीत’ पढ़ी। इस पुस्तक से वे बहुत प्रभावित हुए।

सन 1812 में सर हम्फ्री डेवी का एक भाषण रॉयल सोसाइटी में होना था। उन दिनों सर हम्फ्री डेवी एक बड़ा नाम था। इस भाषण को सुनने के लिए टिकट जरूरी थी। उन्हीं दिनों इनकी दुकान पर एक ग्राहक आया और उनके पास इस भाषण की टिकट था। वह भाषण सुनने जाने का इच्छुक नहीं था। उन्होंने यह टिकट फैराडे के दुकान मालिक को दे दी। इस प्रकार यह टिकट फैराडे के पास आ गई। यह टिकट फैराडे के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई। वह भाषण सुनने चला गया। वहां अधिकांश बड़े बुद्धिजीवी व वैज्ञानिक स्तर के व्यक्ति उपस्थित थे। सभी सर डेवी के भाषण पर तालियां बजा रहे थे व मंत्रमुग्ध हुए जा रहे थे। केवल एक व्यक्ति ही ऐसा था जो चुपचाप सुन रहा था और इस भाषण के नोट्स ले रहा था। वह व्यक्ति था फैराडे। भाषण समाप्त होने के बाद फैराडे वापस आया। इन्होंने इस भाषण को घर आकर साफ-साफ उतारा और इसके आधार पर एक 300 पृष्ठ की पुस्तक तैयार की। वह इस पुस्तक को सर हम्फ्री डेवी को भेंट करने के लिए चल पड़ा। इस पुस्तक को देखकर सर डेवी आश्चर्यचकित रह गए। उन्हें यकीन नहीं हुआ कि कोई भी श्रोता मेरी इस पूरी बात को इतने अच्छे तरीके से समझ सकता है। सर डेवी ने फैराडे के सामने अपनी प्रयोगशाला के लिए एक सहायक के रूप में काम करने की पेशकश रखी। फैराडे इस प्रस्ताव को सुनकर फूला नहीं समाया। यहां से उसके जीवन का एक और सफर शुरू हुआ और वह था एक प्रयोगकर्ता का सफर। एक बार सर डेवी नाइट्रोजन ट्राईक्लोराइड पर कोई प्रयोग कर रहे थे। इसमें एक भयंकर विस्फोट हुआ। इससे सर डेवी की आंखों की रोशनी लगभग जाती रही। यह सन 1813 की बात है। सर हम्फ्री डेवी ने फैराडे को अपना सचिव बनाना चाहा ।

सर डेवी को 1813 से 1815 यूरोप (पेरिस व अन्य देश) की यात्राओं पर जाना था। इन्होंने अपने परिवार के साथ फैराडे को भी ले लिया। सर डेवी की पत्नी ज्यादा उदार दिल नहीं थी। फैराडे का खानदान उन दिनों अंग्रेजी समाज में उच्च वर्ग में नहीं गिना जाता था। सर डेवी की पत्नी फैराडे को द्वितीय दर्जे का नागरिक समझती थी और उसके साथ नौकर जैसा व्यवहार करती थी। वह इसे अच्छा नहीं मानती थी कि वह उनके साथ गाड़ी में बैठे, उनके साथ खाए -पिए आदि। वह फैराडे को अपना एक निजी नौकर ही समझती थी। फैराडे इस व्यवहार से खुश नहीं थे। वे बहुत दुखी हुए। एक बार तो इन्होंने आत्महत्या तक करने की भी सोची। वे वापस इंग्लैंड जाना चाहते थे। सर डेवी को यह सब पता चला। उन्होंने कुछ उदारता दिखाई। उन्होंने अपनी पत्नी की नाराजगी के बावजूद फैराडे को अपना स्थायी वैज्ञानिक सहायक बनाया। सर डेवी जहां कहीं भी जाते ,वे यही कहते थे कि उनकी सबसे बड़ी खोज या उपलब्धि फैराडे हैं।
सन 1820 में डेनमार्क के एक वैज्ञानिक एच ओरेस्टेड ने एक प्रयोग करते समय पाया कि यदि किसी तार में धारा विद्युत बह रही हो तो वह अपने आसपास एक चुंबकीय क्षेत्र पैदा कर लेती है। यद्यपि यह संयोगवश ही हुआ था। यदि एक तरह से देखा जाए तो यह एक बहुत बड़ी खोज थी। क्योंकि दो भौतिक शक्तियां आपस में परस्पर व्यवहार को प्रदर्शित कर रही थी। यह बात सर डेवी तक भी पहुंची। उन्होंने इसे कोई खास महत्व की बात नहीं माना। लेकिन फैराडे ने इसके महत्व को समझने में देर नहीं लगाई।

फैराडे ने कहा कि यह अब तक की सर्वाधिक बड़ी खोज है। इसके सिद्धांत पर उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही एक विद्युत मोटर बना डाली। विज्ञान के इसी सिद्धांत पर हमारे बिजली के पंखे, पंप ,रेफ्रिजरेटर आदि काम करते हैं। आगे चलकर इन्होंने डायनेमो बनाया। फैराडे की जैसे ही यह उपलब्धि दुनिया के सामने आई। उनकी गिनती भी बड़े वैज्ञानिकों में होनी शुरू हो गई ।डेवी को लगने लगा कि कहीं फैराडे मेरे लिए चुनौती तो नहीं बन जाएगा। सर डेवी ने फैराडे के आगे के काम को रोकना चाहा। उन्होंने कुछ रुकावटें डाली। सन 1829 में 50 वर्ष की आयु में लकवे के कारण सर डेवी की मृत्यु हो गई। फैराडे ने सर डेवी का बहुत ज्यादा सम्मान किया। उन्होंने सर डेवी को अपने पिता के समान माना और उन्हें अपना संरक्षक तक कहा । 12 जून सन 1821 में फैराडे की शादी साराह से हुई। यह इनके लिए बहुत अच्छी सहयोगी सिद्ध हुई। ये हर काम में इनका सहयोग करती थी। दुर्भाग्य से इनको कोई संतान नहीं हुई। ये फैराडे से आयु में लगभग 10 वर्ष छोटी थी। इनकी मृत्यु सन 1879 जनवरी 6 को हुई ।

सर हम्फ्री डेवी की मृत्यु के बाद फैराडे ने ज्यादा स्वतंत्र होकर काम करना शुरू किया। वे अपना अधिकतर समय प्रयोगशाला में बिताते थे। वे हमेशा कुछ- न कुछ प्रयोग करते रहते थे। सन 1831 में इन्होंने एक आरंभिक स्तर का जेनरेटर तैयार किया। यह विद्युत प्रेरण की विधि पर काम करता था। विद्युत प्रेरण फैराडे की सबसे बड़ी खोज मानी जाती है ।ऐसा कहा जाता है कि इन्होंने इसका प्रदर्शन उस समय के प्रधानमंत्री के सामने किया था। इनसे पूछा गया — यह किस काम के लिए है? फैराडे ने इसका बहुत ही शानदार उत्तर दिया– आप एक नवजात शिशु से जिस बात की उम्मीद कर सकते हैं। इसके 50 वर्ष बाद इसका व्यावहारिक प्रयोग सामने आया। जैसा कि हम जानते हैं फैराडे ने औपचारिक शिक्षा का उच्च अध्ययन नहीं किया था। वे मूलतः एक प्रयोगधर्मी एवं प्रकृति के सूक्ष्म अवलोकनकर्ता थे। इन्हें गणित का ज्यादा ज्ञान नहीं था। न्यूटन के समय से ही अधिकतर वैज्ञानिक नियम व सिद्धांत गणितीय समीकरणों में आने लगे थे। इन सिद्धांतों की प्रमाणिकता एवं स्वीकार्यता के लिए अब यह जरूरी हो गया था। यह अपने काम व सिद्धांतों की गणितीय समीकरण नहीं दे पाए। उनके इस प्रेरणा सिद्धांत को बाद में स्कॉटलैंड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने गणितीय समीकरणों में ढाला। मैक्सवेल ने इस समीकरण को मैक्सवेल– फैराडे समीकरण कहा।

फैराडे ने मैक्सवेल को एक पत्र में लिखा भी कि मैं तो ऐसी समीकरणों को देखकर घबरा गया कि वैज्ञानिक सिद्धांतों को ऐसी भारी-भरकम समीकरणों से प्रदर्शित किया जाता है। फैराडे का विश्वास था कि प्रकृति की सभी ताकतों के बीच कोई तालमेल है जरूर। इसलिए कोई एक ताकत ऐसी होनी चाहिए जिसमें सभी का समावेश हो और जो एक ही समीकरण से दर्शाई जा सकती हो। मैक्सवेल– फैराडे समीकरण वही समीकरण है जिनसे आइंस्टाइन प्रभावित हुए थे। ऐसा कहा जाता है कि आइंस्टाइन के दिमाग में यूनिफाइड थ्योरी देने की बात के पीछे इन्हीं की प्रेरणा थी। फैराडे का रसायन विज्ञान में भी बहुत बड़ा योगदान रहा। सन 1834 में इन्होंने विद्युत विश्लेषण पर महत्वपूर्ण कार्य किए। उद्योग में यह विद्युतलेपन के काम आए। यह एक अभूतपूर्व खोज थी। बेंजीन पर भी इन्होंने महत्वपूर्ण शोध किए। बहुत से यौगिकों पर उन्होंने काम किया। इन खोजों की बदौलत इन्हें रॉयल संस्था में रसायन के प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति मिली। इस संस्था में इतने ऊंचे पद पर पहुंचने वाले बिना डिग्री के ये पहले प्रोफेसर थे । इन्हें नाइटहुड की उपाधि मिल रही थी, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। सन 1836 में इन्होंने एक ऐसी युक्ति खोजी जिसमें विद्युत- चुंबकीय क्षेत्र को एक घेरे में रखा जा सकता था। इसका नाम उन्हीं के नाम पर फैराडे cage रखा गया। एम आर आई जैसे बड़े परीक्षणों में इसी सिद्धांत का प्रयोग होता है। इन्होंने पहली बार कार्बन और क्लोरीन के कुछ योगिक बनाए।

सन 1846 में ये इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रकाश विद्युत और चुंबक की एक परिघटना है। लेकिन वे अपनी इस अवधारणा को गणितीय समीकरण में नहीं समझा पाए। इसलिए उस समय यह अवधारणा स्वीकृत नहीं हुई। इसी बात को मैक्सवेल ने सन 1864 में एक समीकरण के रूप में दर्शाया। अब ये प्रसिद्धि के शिखर पर थे। उन्हें दो बार रॉयल सोसाइटी के अध्यक्ष पद के लिए चुना गया लेकिन इन्होंने इसे भी स्वीकार करने से मना कर दिया।
इनसे पूर्व विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वालों को प्रकृति दार्शनिक कहा जाता था। उन्होंने इस शब्दावली को ‘वैज्ञानिक’ के रूप में बदला। अपने अंतिम वर्षों में उन्होंने एक पुस्तक लिखी और इसे अपने पूर्व मालिक जार्ज रीबा को समर्पित किया। इसमें उन्होंने लिखा कि यह उन्हीं की मेहरबानी से हुआ है कि आज मैं कुछ सोचने- समझने में समर्थ हो पाया हूं। आपने ही मुझे पुस्तके पढ़ने की अनुमति व अवसर दिए। इन्हें अच्छी तरह याद था कि उन्हें सर हम्फ्री डेवी का एक भाषण सुनने के लिए टिकट मिल गई थी। अब ये स्वयं इस प्रकार भाषण देने वालों में बन गए थे। ये प्रत्येक क्रिसमस के अवसर पर बिना टिकट मुफ्त लेक्चर दिया करते। ये लेक्चर आम आदमी की भाषा में रोचक तथा प्रभावशाली हुआ करते। इस प्रकार वे सही अर्थों में एक सच्चे विज्ञान संप्रेषक थे।

इनकी ईसाइयत में पूरी आस्था थी। धार्मिक आस्था एवं एक वैज्ञानिक का अद्भुत संगम इनमें था। इन्होंने स्पष्ट रूप में अपने इन दोनों पक्षों को मुखर नहीं किया। लेकिन इनके पत्रों, भाषण व लेखन से यह स्पष्ट था कि ये एक वैज्ञानिक पहले हैं और आस्थावान बाद में हैं। इन्होंने अपने बारे में लिखा है – प्रयोगों के बिना मैं कुछ भी नहीं। बचपन से ही मैं कल्पनाशील रहा हूं। पहले में अरेबियन नाइट्स की कहानियों को ऐसे मानता था मानो ये विश्वकोश की सच्चाई हों। बाद में मैं तथ्यों की ओर मुड़ा। उन्होंने मुझे बचा लिया। मेरा विश्वास तथ्यों में बढ़ने लगा। एक बात सही है कि हमारे विचार चाहे कैसे भी हो लेकिन ये प्रकृति के तथ्यों को बदल नहीं सकते। 19 मार्च 1849 में फैराडे ने प्रयोग शाला के बारे में एक लेख लिखा –यह सब मेरे लिए एक सपने जैसा है। इसे प्रयोगों की संगति में देखना होगा। तभी ये प्रकृति के नियम समझे जा सकेंगे। एक बार किसी ने इनसे पूछा — मृत्यु उपरांत जीवन पर आपका क्या ख्याल है? इनका सीधा उत्तर था– ‘खयाल’? कुछ भी नहीं। मैं ठोस निश्चितताओं में विश्वास करता हूं और इन्हीं को समझता हूं । इनकी मृत्यु 25 अगस्त सन 1867 में हुई। ये अपने पैतृक गांव में दफनाए गए। इनकी मृत्यु के लगभग 124 वर्ष बाद बैंक ऑफ इंग्लैंड में इन पर 20 पौंड का सिक्का जारी किया। इनके पत्राचार व विपुल साहित्य को 6 ग्रंथों में समेटा गया है। इनमें लगभग 4900 पत्रों का संग्रह है। इनका सबसे ज्यादा जोर आम नागरिकों की शिक्षा पर रहा। इनके काम को संस्कृति एवं विज्ञान के मिलन के रूप में देखा जाता है।

      (लेखक हरियाणा के वरिष्ठ विज्ञान लेखक एवं विज्ञान संचारक हैं तथा हरियाणा विज्ञान मंच से जुड़े हैं )

Spread the information