जयपाल सिंह मुंडा को भारतीय जनजातियों और झारखंड अलग राज्य आंदोलन की पहली ईंट के तौर पर देखा जाता है। उन्हें मरङ गोमके के तौर पर जाना जाता है, अत: उनके नाम के आगे मरङ गोमके (बड़ा मलिक) लगाया जाता है।जयपाल सिंह मुंडा ने ईसाई धर्म को स्वीकार करने के बाद भी अपने नाम में कोई बदलाव नहीं करके अपनी आदिवासीयत बरकार रखा। जयपाल सिंह मुंडा राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, संपादक, शिक्षाविद्, खिलाड़ी, और कुशल प्रशासक होने की प्रतिभा के धनी थे। वे आदिवासियों को जनजाति कहे जाने के विरोधी थे। उनका मानना था कि आदिवासी यहां के मूल निवासी हैं, अत : वे जनजाति नहीं आदिवासी हुए।
जन्म
जयपाल सिंह मुंडा का जन्म 3 जनवरी 1903 में रांची झारखंड के खूंटी नामक एक छोटे से कस्बे में हुआ था. जयपाल सिंह मुंडा का वास्तविक नाम ईश्वर जयपाल सिंह था,लेकिन उन्हें झारखंड के आदिवासी मरड़ गोमके कहते थे। जयपाल सिंह मुंडा झारखंड के आदिवासी जनजाति मुंडा से संबंध रखते थे। इनका मूल स्थान दक्षिणी छोटा नागपुर है।
शिक्षा
जयपाल सिंह मुंडा ने शुरुआती शिक्षा रांची के सैंट पॉल स्कूल से प्राप्त किया था । वहाँ के प्रधानाचार्य ने आगे की शिक्षा के लिये उन्हे इंग्लैंड भेजा । स्कूल की शिक्षा पाने के बात उन्होने उच्च शिक्षा ऑक्स्फर्ड विश्वविद्यालय से प्राप्त की। मिशनरीज के मदद से ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए गए वहां पर वे एक निराले रूप से एक प्रतिभाशाली थे। उन्हें पढ़ाई के अलावा हॉकी खेलने का शौक था। इसके अलावा वाद-विवाद में भी उन्होंने खूब नाम कमाया। सैंट पॉल के प्रधानाचार्य रेव.केकॉन कोसग्रेन ने पहचाना और वही उनके प्रारम्भिक गुरु भी थे, जिन्होंने उन्हे अपने समाज के उत्थान के लिये प्रेरित किया।
1912 में जब बंगाल से बिहार को अलग किया गया, तब उसके कुछ वर्षों बाद 1920 में बिहार के पाठारी इलाकों के आदिवासियों द्वारा आदिवासी समुहों को मिलाकर ‘‘छोटानागपुर उन्नति समाज’’ का गठन किया गया। बंदी उरांव एवं यूएल लकड़ा के नेतृत्व में गठित उक्त संगठन के बहाने आदिवासी जमातों की एक अलग पहचान कायम करने के निमित अलग राज्य की परिकल्पना की गई।
इसके बाद 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने संताल परगना के आदिवासियों को जोड़ते हुये ‘‘आदिवासी महासभा’’ का गठन किया। इस सामाजिक संगठन के माध्यम से अलग राज्य की परिकल्पना को राजनीतिक जामा 1950 में जयपाल सिंह मुंडा ने ‘‘झारखंड पार्टी’’ के रूप में पहनाया। मतलब आदिवासियों की अपनी राजनीतिक भागीदारी की शुरूआत जयपाल सिंह मुंडा ने की। 1951 में देश में जब लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ तो बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में झारखंड पार्टी एक सबल राजनीतिक पार्टी के रूप विकसित हुई।
1952 के पहला आम चुनाव में छोटानागपुर व संताल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं, अत: सभी 32 सीटों पर झारखंड पार्टी का ही कब्जा रहा। वहीं लोक सभा चुनाव में वे सांसद चुने गए और अन्य चार संसदीय सीटों पर उनकी पार्टी विजयी रही। वे 1952 से मृत्युपरांत 1970 तक खूंटी से सांसद रहे। बिहार में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में झारखंड पार्टी उभरी तो दिल्ली में कांग्रेस की चिन्ता बढ़ गई। तब शुरू हुआ आदिवासियों के बीच राजनीतिक दखलअंदाजी का खेल। क्योंकि इस बीच 1955 में जयपाल सिंह मुंडा (Marang Gomke Jaipal Singh Munda,) ने राज्य पुर्नगठन आयोग के सामने झारखंड अलग राज्य की मांग रखी। जिसका नतीजा 1957 के आम चुनाव में देखने को मिला। झारखंड पार्टी ने चार सीटें गवां दी तथा 1962 के आम चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर सिमट कर रह गई। 20 जून 1963 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा के कार्यकाल में झारखंड पार्टी को पार्टी सुप्रीमो जयपाल सिंह मुंडा द्वारा तमाम विधायकों सहित कांग्रेस में विलय कर दिया गया।
पुरस्कार
- 1925 में ऑक्सफोर्ड ब्लू का खिताब पाने वाले एक मात्र हॉकी खिलाड़ी
- जयपाल सिंह मुंडा को खिलाड़ी होने के नाते कप्तानी में पहली बार 1928 में भारत के ओलंपिक में स्वर्ण पदक मिला
मृत्यु
आदिवासियों के लिए लड़ते-लड़ते 20 मार्च 1970 को दिल्ली में जयपाल सिंह मुंडा का निधन हो गया लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह है कि उसके बाद उन्हें भुला दिया गया।