डी एन एस आनंद
यह आजादी का 75 वां वर्ष है। निश्चय ही आजादी के बाद का यह समय संविधान सम्मत एकजुट भारत के निर्माण का होना चाहिए था, ताकि 21 वीं सदी के मौजूदा दौर में भारत प्रगति पथ पर तेज गति से आगे बढ़े, आत्मनिर्भर हो तथा विश्व में मानवीय मूल्य आधारित अपनी विशिष्ट पहचान कायम करे। पर संकीर्ण मानसिकता, प्रतिगामी सोच इसमें आज सबसे बड़ी बाधा है। इस तरह की प्रवृत्तियां समाज में नफरत फैलाने, उसे बांटने का गर्हित कार्य कर रही हैं। ऐसे में यह सवाल अहम है कि हम समाज में प्रेम, सौहार्द्र, भाईचारा एवं सृजनशीलता को कैसे बचाएं ? श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों की रक्षा कैसे करें ? निश्चय ही जन संवाद इसका एक महत्वपूर्ण माध्यम हो सकता है। और जन संचार, लेखन जन संवाद का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।
अक्सर विचारधारा, दृष्टिकोण आधारित लेखन पर सवाल उठाए जाते हैं। यहां यह सवाल अहम है कि क्या सृजनात्मक लेखन के लिए किसी लेखक, रचनाकार में किसी खास विचार, किसी खास दृष्टिकोण का होना जरूरी है ? या फिर यह गैर जरूरी है ? इसी से जुड़ा यह प्रश्न भी अहम है कि क्या दृष्टिकोण विशेष सृजनशीलता को प्रभावित करता है ? क्या महज प्रकृति का यथावत चित्रण अथवा स्वांत: सुखाय लेखन अधिक महत्वपूर्ण, मानवीय एवं उपयोगी होता है? क्या वह अधिक गुणवत्तापूर्ण होता है ? यानी क्या कला सिर्फ कला के लिए हो या फिर समाज, देश, दुनिया के लिए ?
दरअसल मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं समूह में रहना पसंद करता है। आदिम काल में भी प्राकृतिक चुनौतियों का सामना कर अपने अस्तित्व की रक्षा समूह में ही संभव था और सामूहिक प्रयास एवं संघर्ष से ही मानव सभ्यता एवं संस्कृति मौजूदा मुकाम तक पहुंची। और आगे के सफर के लिए भी सामूहिकता की बेहद जरूरत है।
क्यों महत्वपूर्ण है दृष्टिकोण का सवाल
प्रकृति सतत परिवर्तनशील एवं गतिशील है और समाज भी। यह प्रक्रिया ही समाज को आगे ले जाती है। यथास्थिति बनाए रखना व्यक्ति एवं समाज की विकास यात्रा में सबसे बड़ी बाधा है। उसके कारण जड़ता की स्थिति पैदा होती है। व्यक्ति लकीर का फकीर बन जाता है। परम्पराओं एवं मान्यताओं के नाम पर ऐसा करना आसान हो जाता है। स्वभावत: इससे विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध होती है तथा समाज पीछे की ओर लौटने लगता है।
सतत आगे बढ़ते चलें
जीवन, घर, परिवार एवं समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए हम हर पल, हर दिन जद्दोजहद करते हैं। ऐसे में अपने अस्तित्व की रक्षा एवं सतत विकास के लिए हम या तो किसी ज्ञात – अज्ञात शक्ति की कृपा पर निर्भर करें या फिर और अधिक जानने की ललक, खोजी प्रवृत्ति, तर्कशीलता, विवेक एवं सूझबूझ के जरिए, अपने सामने मौजूद समस्याओं, चुनौतियों को समझें, तथा पुरुषार्थ एवं प्रबल संघर्ष के जरिए हालात को बदलने का प्रयास करें। यहीं पर दृष्टिकोण का सवाल अहम हो जाता है। यदि हम यह मानते हैं कि हमारे भविष्य का निर्माता एवं नियंत्रणकर्ता कोई और है। उसकी मर्जी के बिना कुछ नहीं हो सकता। भाग्य- भगवान, ग्रह- नक्षत्र, पुनर्जन्म, कर्मफल के जरिए सब कुछ पूर्व निर्धारित है। ऐसे में हम धारा के साथ बहना न सिर्फ सही, बल्कि उसे अपनी मजबूरी मानेंगे। हम परिस्थितियों को काबू में करने की बजाय समय की धारा के साथ बहना पसंद करेंगे। चूंकि रूढ़िवादी मान्यताओं के कारण हमारे सामने कोई और विकल्प भी नहीं प्रतीत होगा।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही हमें आगे बढ़ाता है
सतत खोजी प्रवृत्ति एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर हमें सतत आगे ले जाता है। आस्था एवं विश्वास से इतर विज्ञान की प्रवृत्ति खोजी होती है। विज्ञान सदैव सवाल पूछने और समस्याओं का समाधान ढूंढने पर भरोसा करता है। विज्ञान की दुनिया में अंतिम सत्य कुछ नहीं होता। विज्ञान हो या समाज वह उस वक्त विकास की एक खास अवस्था में होता है। वह सतत गतिशील एवं विकासमान है। अतः जो आज का सत्य है वह कल का भी सत्य रहेगा यह बिल्कुल निश्चित नहीं है। इस पर खोजी दृष्टि, जिज्ञासा, जानने की ललक हमें आगे बढ़ाती है। इसमें परनिर्भरता की गुंजाइश नहीं होती। अतः व्यक्ति विवेक बुद्धि एवं पुरुषार्थ का इस्तेमाल कर अपने लिए बेहतर मार्ग तैयार करता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध सिर्फ विज्ञान से नहीं
प्रकृति विज्ञान हो या समाज विज्ञान, उसका रिश्ता वैज्ञानिक दृष्टिकोण से होता है। दरअसल यह चीजों को देखने, जानने, समझने का हमारा नजरिया होता है। किसी भी चीज अथवा स्थिति की एकांगी समझ, हमें उसे संपूर्णता में समझने एवं ठोस व सही निष्कर्ष तक पहुंचने में हमारी कोई खास मदद नहीं करती। किसी ठोस एवं तर्कसंगत निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए जरूरी है कि हम उसे संपूर्णता में देखने, जानने, समझने का प्रयास करें। वह भी आग्रह- पूर्वाग्रह से मुक्त होकर। पूर्वाग्रह हमें सही निष्कर्ष पर पहुंचने नहीं देता। ऐसे में हम या तो यथास्थितिवादी बन जाते हैं या हालात को बदलने के बजाय उससे समझौता करने का हर संभव प्रयास करते हैं।
संविधान सम्मत कर्तव्य
समाज की वस्तुस्थिति को समझ कर ही वैज्ञानिक मानसिकता के विकास को नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों में शामिल किया गया। भारतीय संविधान की धारा 51- क में कहा गया है – ” हर भारतीय नागरिक का यह मौलिक कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक मानसिकता, मानवतावाद, सुधार एवं खोज की भावना विकसित करे ”
इससे स्पष्ट है कि संविधान ने न सिर्फ वैज्ञानिक मानसिकता के विकास पर बल्कि सुधार एवं खोज भावना के विकास पर भी उतना ही बल दिया है। यह कार्य रूढ़िवादी परम्पराओं एवं मूढ़ मान्यताओं को स्वीकार कर तथा उसे बढ़ावा देकर नहीं किया जा सकता। यह तर्कसंगत, प्रगतिशील विचारों को अपना कर ही संभव हो सकता है।
संविधान, लोकतंत्र, जनवाद की रक्षा जरूरी
सत्ता व्यवस्था द्वारा धर्मांधता, संकीर्णता, कट्टरता, नफरत एवं प्रतिगामी सोच को बढ़ावा देने के मौजूदा दौर में प्रगतिशील सोच के लिए भी सांस लेना दूभर होता जा रहा है। संविधान एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था के समक्ष भी काफी चुनौतियां हैं। संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्ष, समतामूलक, विविधतापूर्ण समाज के निर्माण के एजेंडे को हाशिए पर धकेला जा रहा है। देश में गैरबराबरी घटने के बजाय और बढ़ती ही जा रही है। देश की कुल संपत्ति का बड़ा हिस्सा मुट्ठी भर लोगों के पास सिमटती जा रहा है। इसके कारण देश की काफी बड़ी आबादी लगातार, गरीबी, भुखमरी, बदहाली की ओर घिसटती जा रही है। यानी देश में आम आदमी नहीं, मुट्ठी भर खास लोगों का बोलबाला है। ऐसे में आम आदमी यानी जन या लोक की स्थिति समझना कठिन नहीं है। पर लोक के बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। और जन ही चिंता ही हमें जनवाद की ओर ले जाती है। ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि बेहतर समाज एवं देश के निर्माण के लिए हम जन पक्षीय दृष्टिकोण अपनाएं। यह दृष्टिकोण ही समतामूलक, विविधतापूर्ण, धर्मनिरपेक्ष, तर्कशील, विज्ञानसम्मत, आधुनिक मानवीय मूल्यों की रक्षा करने एवं उसे आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करेगा।
डी एन एस आनंद
महासचिव, साइंस फार सोसायटी, झारखंड
संपादक, वैज्ञानिक चेतना, साइंस वेब पोर्टल, जमशेदपुर, झारखंड