नन्द किशोर सोलंकी
26 जनवरी, गणतंत्र दिवस, भारत के लिए बेहद अहम है। इसी दिन स्वतंत्र, संप्रभुता संपन्न राष्ट्र के रूप में भारत ने अपने लिए संविधान अंगीकार किया था। उसकी प्रस्तावना में संविधान के श्रेष्ठ मूल्यों को शामिल किया गया, जो देश के तमाम नागरिकों के लिए बेहद अहम है। यह आजादी का 75 वां वर्ष है। इस कालखंड में भारत अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरा है। इससे यह समझ मजबूत हुई है कि समतामूलक, विविधतापूर्ण, न्यायपूर्ण, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील , विज्ञान सम्मत, आधुनिक एवं आत्मनिर्भर भारत के निर्माण के लिए संविधान एवं लोकतंत्र की रक्षा बेहद जरूरी है। प्रस्तुत है इसी को रेखांकित करता, हरियाणा के समाज विज्ञानी, नन्द किशोर सोलंकी का यह महत्वपूर्ण आलेख
‘प्रस्तावना की व्याख्या’
प्रस्तावना किसी भी संविधान का महत्वपूर्ण अध्याय (भाग) होता है। प्रस्तावना में संविधान निर्माताओं का विजन (दर्शन) होता है, तथा साथ ही सविधान के लक्ष्यों और उद्देश्यों का वर्णन होता है। इसलिए प्रस्तावना को उदेशिका भी कहा जाता है। प्रस्तावना में संविधान निर्माताओं का राष्ट्र निर्माण के प्रति दृष्टिकोण, समाज निर्माण के प्रति दृष्टिकोण तथा नागरिक निर्माण के प्रति दृष्टिकोण परिलक्षित होता है भारतीय संविधान में संविधान निर्माताओं की इसी तरह की दृष्टि देखने को मिलती है।
(1) ‘हम भारत के लोग भारतीय संविधान की शुरुआत “हम भारत के लोग शब्दों से होती है। अमेरिका संविधान की शुरुआत भी “we the people of United State of America” शब्दों से होती है। जिसका अर्थ है भारतीय संविधान का निर्माण भारत की जनता ने किया है सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथों में है किसी व्यक्ति संस्था के हाथों में नहीं। जनता ही अंतिम फैसला ले सकती है।
(2) “संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न -प्रभुसता वह शक्ति है जो किसी भी राष्ट्र को राज्य बनाती है। जब एक देश अपने आंतरिक (घरेलू) व बाह्य (विदेशी) मामलों में स्वतंत्र होता है तो वह प्रमुत्व संपन्न होता है। जिस पर किसी बाहरी शक्ति का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। 15 अगस्त 1947 से पहले भारत न तो अपने आंतरिक मामलों में एवं न बाहरी मामलों में स्वतंत्रत था। बल्कि अंग्रेजी साम्राज्य का एक अंग (उपनिवेश) मात्र था। भारत एक राष्ट्र तो था परंतु राज्य नहीं।
(3) समाजवादी समाजवादी राज्य वह राज्य होता है जहां किसी एक व्यक्ति या वर्ग का या कुछ व्यक्तियों के कल्याण के लिए कार्य न होकर संपूर्ण समाज के कल्याण के लिए कार्य होता है। व्यक्ति प्रधान नहीं होता बल्कि समाज प्रधान होता है। स्वतंत्रता के बाद बहुत सी संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया गया ताकि ज्यादा से ज्यादा जनता का कल्याण किया जा सके। 1989 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा 1980 में 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण इसी दिशा में एक कदम था।
(4) पंथनिरपेक्षता’ 42 वे संविधान संशोधन 1976 द्वारा पंथनिरपेक्ष शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। भारतीय परिपेक्ष में पंथनिरपेक्ष का अर्थ है राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। संविधान राज्य की शक्तियों और धर्म को मिलाने (उप-पदह) की छूट नहीं देगा। जिसका अर्थ है धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा। देश के सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को अपनाने उसकी उपासना करने तथा प्रचार की स्वतंत्रता होगी राज्य किसी भी प्रकार की सहायता करते समय नागरिकों से धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। धर्म नागरिकों का निजी मसला होगा।
(5) ‘लोकतंत्रात्मक लोकतंत्र का अर्थ है जनता का शासन (लोक जनता, तंत्र शासन) अर्थात जिस देश में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार हो उसे लोकतंत्र कहते हैं। अब्राहम लिंकन के शब्दों में जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन, ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र में एक निश्चित समय के बाद चुनाव द्वारा सरकार बदल दी जाती हैं। उसका चुनाव होता है। भारत में यह अवधि 5 वर्ष है। एक सच्चे लोकतंत्र में न केवल जनता द्वारा चुनी हुई सरकार होनी चाहिए बल्कि सरकार का रवैया भी जनतंत्रवादी होना चाहिए। वरना लोकतंत्र तंत्र भीड़ तंत्र में बदल जाएगा जागरूक जनता (जनमत) ही लोकतंत्र की रक्षा कर सकती है।
(6) गणतंत्रात्मक’ जिस देश का मुखिया जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सुना हुआ हो उसे गणतंत्र कहते हैं। भारत का राष्ट्रपति जो कि देश का मुखिया है अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है। 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) केवल इसलिए नहीं मनाया जाता कि उस दिन हमारे देश का संविधान लागू हुआ था बल्कि उस दिन हम गणतंत्र भी हुए थे। अर्थात नागरिकों को देश के मुखिया को चुनने का अधिकार भी प्राप्त हुआ था। प्रत्येक गणतांत्रिक देश लोकतांत्रिक होता है, परंतु प्रत्येक लोकतांत्रिक देश गणतंत्र हो ऐसा आवश्यक नहीं। इंग्लैंड और जापान लोकतात्रिक देश है परंतु गणतान्त्रिक नहीं क्योंकि दोनों देशों के मुखिया वंश परंपरा के तहत एक परिवार से आते हैं, चुने नहीं जाते जिसे राजतंत्र कहते हैं।
(7) सामाजिक न्याय सामाजिक न्याय में देश के नागरिकों से किसी भी आधार पर भेदभाव (जैसे जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग, स्तर इत्यादि) नहीं किया जाता समाज के कमजोर वर्गों को विशेष सुविधाएं देकर सामाजिक सुरक्षा के तहत समाज के दूसरे वर्गों के बराबर लाने के प्रयास किए जाते हैं, ताकि उनका सामाजिक उत्पीडन न किया जा सके। किसी को भी विशेष अधिकार नहीं दिए जाते
(8) ‘आर्थिक न्याय’ आर्थिक न्याय से अभिप्राय देश के प्रत्येक नागरिक को भूख और अभाव से छुटकारा दिलाना है। प्रत्येक नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं (रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा शिक्षा) की पूर्ति राज्य द्वारा की जाती है। नागरिकों का आर्थिक शोषण नहीं होता। सभी लोगों को काम की उचित मजदूरी दी जाती है। वंचित तबकों के साथ-साथ बेकारी, बुढापा, विकलांगता की स्थिति में आर्थिक सुरक्षा के तहत राज्य द्वारा सहायता दी जाती है। धन का संचय मुट्ठी भर लोगों के हाथ में नहीं होता और समान काम के लिए समान वेतन दिया जाता है व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। न्यूनतम और अधिकतम आय के अंतर को कम किया जाता है।
(9) राजनीतिक न्याय देश के समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के देश के शासन कार्यों में भाग लेने के अधिकार को राजनीतिक न्याय कहते हैं। इनमें मुख्यतरू शामिल है ((वोट देने का अधिकार (2) चुनाव लड़ने का अधिकार (3) सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार (4) सरकार की आलोचना करने का अधिकार (5) प्रार्थना पत्र देने का अधिकार इत्यादि। इस तरह के अधिकार केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था में मिलते हैं, तानाशाही में नहीं। परंतु राजनीतिक न्याय की वास्तविक प्राप्ति तभी होती है जब आर्थिक न्याय हो। आर्थिक न्याय के अभाव में राजनीतिक न्याय केवल कल्पना मात्र है।
(10) विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान ने देश के नागरिकों को भाषण देने और अपने विचार लिखकर या छपवा कर प्रकट करने की स्वतंत्रता दी है समाचार पत्रों की स्वतंत्रता (प्रिंट मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) भी इसमें शामिल है। इसी अधिकार को मौलिक अधिकारों के अध्याय 19(1) में शामिल किया गया है। स्वस्थ जनमत के निर्माण के लिए और सरकारों पर अंकुश लगाने के लिए यह अधिकार आवश्यक है। सरकार चाहे तानाशाही हो या लोकतांत्रिक हो इस अधिकार से सबसे ज्यादा भयभीत होती हैं।
(11) विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता – संविधान ने नागरिकों को यह स्वतंत्रता दी है कि वे किसी भी विचारधारा में विश्वास रख सकते हैं। चाहे वे समाजवादी, पूंजीवादी या अन्य किसी विचारधारा में विश्वास करें। वे किसी भी ईष्ट देवता, धर्म पूजा पद्धति में विश्वास रख सकते हैं और उसे अपना सकते हैं। विस्तृत विवरण के लिए ऊपर पंथनिरपेक्षता का अध्याय देखें।
(12) प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रतिष्ठा की समता से अभिप्राय है सविधान के अनुसार प्रत्येक नागरिक का सम्मान है ( चाहे वह अमीर हो, गरीब हो, किसी भी जाति, धर्म या समुदाय से संबंधित हो)। प्रत्येक को पूरी गरिमा (गौरव, शान) से जीने की आजादी है किसी को भी किसी की मानहानि करने का अधिकार नहीं है। अवसर की समता से अभिप्राय प्रत्येक नागरिक को बराबर अवसर प्रदान करना है। संविधान के अनुसार शिक्षा के अवसरों तथा नियुक्ति के अवसरों में किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। नागरिकों की नियुक्ति का आधार योग्यता होगी पहचान नहीं।
(13) व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक की गरिमा (प्रतिष्ठा, गौरव) कायम रखी जाएगी और इस तरह का वातावरण तैयार किया जाएगा जिससे नागरिकों में भाईचारा (बधुता) बना रहे। जिससे देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित की जा सके।
26 जनवरी 1949 को विधानसभा में इस संविधान को स्वीकृत (अंगीकृत) कानून बनाकर (अधिनियमित ) स्वयं को इस के सम्मुख समर्पित (आत्मार्पित) करते हैं। उपर्युक्त संवैधानिक मूल्य संविधान निर्माताओं के अनुभव, अध्ययन व संघर्ष का परिणाम है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जो अनुभव संविधान निर्माताओं को हुए, जो सोच विकसित हुई उन्होंने संविधान में इनको शामिल कर लिया। विभिन्न देशों के संघर्षो क्रांतियों जैसे कि फ्रांसीसी क्रांति, आयरलैंड का स्वतंत्रता आंदोलन) एवं विश्व की महान पुस्तकों का गहन अध्ययन करने के बाद की संविधान में इन मूल्यों को सम्मिलित किया गया हर समाज किसी न किसी आचार संहिता से संचालित होता है। संविधान निर्माताओं ने भी विभिन्न देशों के समाजों का अध्ययन किया और संविधान में इन मूल्यों को शामिल कर लिया। संविधान न केवल एक कानुनी पुस्तक है बल्कि यह है दार्शनिक दस्तावेज भी है।
नन्द किशोर सोलंकी
( व्याख्याता, राजनीति विज्ञान विभाग, हरियाणा, संप्रति हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति से सम्बद्ध हैं )