सुबोध कुमार झा
गांधीजी का जीवन दर्शन एक साधारण मानव से महामानव की यात्रा अनेक वादगार घटनाओं का सकारात्मक संयोजन है। कहाँ अंग्रेजों द्वारा रेल के प्रथम श्रेणी से बाहर फेंकने की घटना से लेकर दक्षिण अफ्रीका में बिताए हुए अनेक यादगार क्रियात्मक क्षण, हिंदुस्तान वापसी पर सम्पूर्ण देश की यात्रा, विदेशी वस्तुओं का त्याग, देश की गरीबी व भुखमरी को देखकर विचलित होना, जाति धर्म व छुआछूत के मकड़जाल से देश को बाहर निकालने के लिए कृत संकल्पित होना, अहिंसा, सादगी को आत्मसात करने की प्रेरणा समाज को देना व अन्य गांधी के जीवन दर्शन को महान बनाता है। पर्यावरण मूलतः अंग्रेजी भाषा के एनवायरनमेंट शब्द का हिंदी रूपांतरण है, जो गांधी जी के जीवन काल में प्रचलन में नहीं आया था लेकिन उनके जीवन दर्शन में ही प्रकृति व प्राणी मात्र से प्रेम संसाधनों पर सभी का समान अधिकार का संदेश समाहित है।
गांधी जी ने कहा था कि मनुष्य को अशुभ मनोवृत्तियां, कर्तव्य विमुखता, स्वार्थी मनोवृत्ति, भ्रष्ट आचरण, अवसरवादिता के रूप में अनार्जित आय को प्राप्त करने की भावना सुविधावाद, असीमित इन्द्रिय भोग एवं वासना के मनोविकार से जब व्यक्ति और समाज पीड़ित होता है तब वह प्रकृति के प्रति क्रूर एवं हिंसात्मक होकर उससे प्रतिक्षण लेता ही रहता है। परिणाम स्वरूप पर्यावरण शुद्धता एवं प्राकृतिक संतुलन भंग हो जाता है। मेरा जीवन ही मेरा संदेश है के द्वारा वास्तव में वे संयम व प्रकृति के भेद प्रेमभाव को ही प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते थे।
गांधी ने प्राणी मात्र के प्रति समभाव का निरूपण करते हुए सरलता सादगी तथा इंद्रिय संयम को महत्वपूर्ण माना था गांधी जी के दर्शन का स्वरूप सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का प्रतिपादन करना प्रतीत होता है। सर्वोदय भावना का मूलमंत्र भी वही है कि सभी प्राणियों का कल्याण एवं मंगल हो, सभी निरामयी हो। किसी को दुख कष्ट न हो। 1909 में गांधी जी ने पश्चिमी समाज के आनंद तथा अकूत संपत्ति के लिए दौड़ को समूची धरती तथा उसके संसाधनों के लिए गंभीर खतरा माना था। उन्होंने जीवनपर्यंत व्यक्तिगत जीवन शैली द्वारा समान विकास की अवधारणा को प्रतिपादित किया। गाँधी जी का पर्यावरणवाद नैतिक सिद्धांतों पर आधारित था। गांधी जी का अपने देश व विचार पर पूर्ण नियंत्रण था। इसलिए उन्होंने कभी भी ऐसा कोई उपदेश नहीं दिया जिसका वे अपने व्यक्तिगत जीवन में स्वयं पालन नहीं करते थे। वहीं उनका प्रकृति चिंतन है।
उन्होंने अपने प्रकृति चिंतन में निम्न बिंदुओं को महत्व दिया था :
1. ग्रामों की आत्मनिर्भरता- ग्राम स्वराज
2. कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन
3. आयातित उपभोक्ता वस्तुओं पर नियंत्रण
4 कृषि में सुधार
5. अक्षय समाज
6. आर्थिक समानता
7. अहिंसा तथा जीवों के प्रति संवेदना
8. स्वच्छता
अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में एक लेख को टू लेल्थ में उन्होंने साफ कहा कि जरूरत पर रोशनी डाली। उनके अनुसार शरीर को तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण की आवश्यकता होती है हवा, पानी और भोजन, लेकिन साफ हवा सबसे आवश्यक है। वह कहते हैं कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त हवा फ्री में दी है लेकिन उनकी पीड़ा थी कि आधुनिक सभ्यता ने इसकी भी कीमत तय कर दी है। वह कहते हैं कि किसी व्यक्ति को कहीं दूर जाना पड़ता है तो उसे साफ हवा के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है ।1918 में अहमदाबाद में एक बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने भारत की आजादी को, तीन मुख्य तत्वों वायु, जल और अनाज की आजादी के रूप में परिभाषित किया था। उन्होंने 1930 के दशक में लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि इसमें सभी नागरिकों को शुद्ध हवा और पानी उपलब्ध होना चाहिए।
गांधी जी प्रकृति के संसाधनों पर आम लोगों का अधिकार को उनके 1930 के दांडी मार्च के रूप में प्रतीक के तौर पर देखा जा सकता है। गांधी ने कई अवसरों पर उधृत किया है कि मनुष्य जब अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए 15 या 20 किलोमीटर से ज्यादा दूर के संसाधनों को प्रयोग तो प्रकृति की अर्थव्यवस्था नष्ट होगी।
दुनिया में अकाल और पानी की कमी के संदर्भ में महात्मा गांधी के विचारों को याद करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक पुस्तक सर्विंग द सेतुरी में पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी चार मानक सिद्धांतों अहिंसा, स्थायित्व, सम्मान और न्याय को बताया गया है जो गांधी के पर्यावरण दर्शन पर आधारित है। 2007 में टाइम मैगजीन ने दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए 51 उपायों को बतलाया था, इसमें से 51वा उपाय कम उपयोग ज्यादा साझेदारी और सरल जीवन था जो गांधी के जीवन दर्शन पर आधारित है। ये तथ्य हमे बताते हैं कि पृथ्वी को बचाने के लिए गांधी जी की मौलिक सोच और उनके विचार कितने महत्वपूर्ण और गहरे हैं।
(सुबोध कुमार झा देवघर सेंट्रल स्कूल के प्राचार्य हैं एवं बच्चों के बीच विज्ञान परक, रचनात्मक गतिविधियों से जुड़े हैं )