डी एन एस आनंद
यह आजादी का 75 वां वर्ष है। और अलग झारखंड राज्य बने भी करीब दो दशक से अधिक बीत गए। लेकिन इस अवधि में कहां पहुंचा झारखंड ? कितने पूरे हुए अलग राज्य की मांग के समय देखे गए लोगों, खासकर युवा पीढ़ी, के सपने ? इन वर्षों में यहां की नई पीढ़ी की स्थिति कैसी रही ? कितना बदला, सुरक्षित हुआ उनका जीवन और भविष्य ? यदि उपलब्ध आंकड़े की मानें तो इन मुद्दों पर कोई खास प्रगति नजर नहीं आती। न ही मौजूदा स्थिति कोई उम्मीद जगाती है। बल्कि सच कहें तो स्थिति लगातार बद से बदतर ही हुई है। आखिर ऐसे में कैसे पूरे होंगे अलग झारखंड राज्य के निर्माण से जुड़े यहां के छात्रों- युवाओं के सपने ? प्रस्तुत है इसी मुद्दे को रेखांकित करता यह आलेख –
झारखंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के अंतर्गत किए गए एक रिसर्च के अनुसार संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में, इंजीनियरिंग कॉलेजों में आदिवासी ( अनुसूचित जनजाति ) कोटे की 91 प्रतिशत सीटें खाली रह जाती हैं। राज्य के शिक्षण संस्थानों में आदिवासी (अनुसूचित जनजाति ) के लिए 26 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं पर उनमें से काफी कम सीटें ही भर पाती हैं। दाखिला लेने वाले छात्रों में भी कुछ ड्रापआउट हो जाते हैं तथा कुछ कोर्स की निर्धारित अवधि में पास नहीं हो पाते। रिसर्च में यह बात भी उभरकर सामने आयी है कि इसमें कोर्स पूरा करने वाले छात्रों में से महज करीब 15 प्रतिशत छात्र छात्राओं को ही नौकरी मिल पाती है। ऐसा भी नहीं कि यह स्थिति महज इंजीनियरिंग में ही है, बल्कि पॉलिटेक्निक, मेडिकल समेत उच्च शिक्षा के सामान्य कोर्स में भी कमोबेश यही स्थिति है।
शिक्षा की चिंताजनक स्थिति
दरअसल झारखंड शिक्षा के क्षेत्र में वैसे भी काफी पीछे है। यदि सन 2011 की जनगणना के आंकड़े को भी देखें, तो स्थिति बहुत हद तक स्पष्ट हो जाती है। उक्त आंकड़े के अनुसार भारत में साक्षरता की दर जहां 80 . 9 प्रतिशत थी, वहीं झारखंड में यह महज 67. 63 प्रतिशत थी। इसमें पुरुषों की साक्षरता दर 76 . 48 प्रतिशत एवं महिलाओं की महज 55 . 4 प्रतिशत थी। इसके मुकाबले राज्य में आदिवासी साक्षरता दर सिर्फ 47 . 63 प्रतिशत थी। यही नहीं, स्कूल स्तर पर भी बच्चों की, बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने यानी ड्रापआउट की दर काफी अधिक है। झारखंड अलग राज्य सन 2000 में बना। राज्य में शिक्षा का अधिकार संबंधी कानून 1 अप्रैल 2010 से लागू है। सर्व शिक्षा अभियान के तहत 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के नामांकन का लक्ष्य निर्धारित किया गया एवं शत प्रतिशत ठहराव पर बल दिया गया। पर आंकड़े की मानें तो वर्ग- 1 से वर्ग – 7 तक बच्चों का छीजन दर यानी ड्रापआउट दर 68 . 39 थी। इससे यह समझना कठिन नहीं है कि जिस समुदाय में इतनी अधिक संख्या में बच्चे मैट्रिक बोर्ड परीक्षा पास करने के पूर्व ही पढ़ाई छोड़ देते हों, आखिर उच्च शिक्षा में उनकी स्थिति क्या होगी।
मातृभाषा में शिक्षा : क्या कहते हैं आंकड़े
झारखंड में आदिवासी, स्थानीय बच्चों की पढ़ाई छोड़ने, ड्रापआउट की इतनी अधिक दर की आखिर वजह क्या है ? और उसका असर क्या हो रहा है ? झारखंड में पहली बार प्राथमिक स्तर की शिक्षा जनजातीय, क्षेत्रीय भाषाओं में शुरू की गई है। वह भी प्रयोग के स्तर पर कुछ चुनिंदा विद्यालयों में। लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि झारखंड में स्कूल स्तर पर जनजातीय, क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई लिखाई की स्थिति अभी कैसी है ? यहां मैट्रिक स्तर पर 17 भाषाओं की पढ़ाई होती है। झारखंड में जिलावार अधिसूचित 20 जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं में से 12 की पढ़ाई मैट्रिक स्तर पर होती है। यदि गत वर्ष यानी सन् 2021 की मैट्रिक बोर्ड परीक्षा के आंकड़े को देखा जाए तो कुल 4 . 33 लाख बच्चे परीक्षा में शामिल हुए थे। इनमें से जिला स्तर पर मान्यता प्राप्त जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा के कुछ 62 हजार, 545 परीक्षार्थी शामिल हुए। इनमें से करीब आधे यानी 29,011 बच्चे उर्दू के थे। मैट्रिक में जनजातीय भाषा में सबसे अधिक बच्चे संताली पढ़ने वाले हैं। संताली को झारखंड में राज्य के कुल 24 जिलों में से 17 जिलों में जनजातीय भाषा के रूप में मान्यता दी गई है। उक्त परीक्षा में संताली में कुल 11, 224 परीक्षार्थी थे। इसी प्रकार जनजातीय भाषा के रूप में खड़िया को चार जिलों में मान्यता दी गई है। वस्तुस्थिति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष मैट्रिक की परीक्षा में इसके सिर्फ 59 परीक्षार्थी ही शामिल हुए थे। सही स्थिति का अंदाजा इससे भी हो जाता है कि झारखंड में प्रत्येक वर्ष मैट्रिक परीक्षा में करीब चार लाख से अधिक परीक्षार्थी शामिल होते हैं, जिसमें आठ जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं में से पांच हजार से भी काम विद्यार्थी शरीक होते हैं। यदि मिडिल एवं हाई स्कूल स्तर पर ही छात्र छात्राओं की यह स्थिति है तो उच्च एवं तकनीकी शिक्षा में वस्तुस्थिति का अंदाज लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है।
मुश्किल है भविष्य की डगर
बेहतरीन अतीत की नींव पर ही सुदृढ़ वर्तमान का निर्माण होता है, जो सुनहरे भविष्य का आधार बनता है। जिस समुदाय के करीब 80 फीसदी बच्चे मैट्रिक बोर्ड के पूर्व ही स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर हो जाते हों, आखिर उसका भविष्य कैसा होगा ? इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं है। इस दिशा में सार्थक एवं ठोस पहल की जरूरत है। समस्याओं से नजरें चुराने या शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छिपाने से समस्याएं खुद – व – खुद हल नहीं हो जाएंगी। बेहद संवेदनशील एवं भावनात्मक मुद्दों पर राजनीति करने, स्थिति का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने एवं उसका अधिक से अधिक फायदा उठाने की कोशिश से झारखंड का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए जरूरी है यहां के जन मुद्दों, समस्याओं, चुनौतियों का संविधान सम्मत, तथ्यपरक एवं तर्कसंगत समाधान निकालने की दिशा में ठोस एवं सार्थक प्रयास करना और निश्चय ही इस मामले में सरकार की जिम्मेदारी कहीं अधिक है। लेकिन सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, इस मुद्दे पर राजनीति किया जाना किसी भी स्थिति में उचित नहीं है। यह न तो जनहित में है, न ही झारखंड के हित में।
डी एन एस आनंद
महासचिव, साइंस फार सोसायटी, झारखंड
संपादक, वैज्ञानिक चेतना, साइंस वेब पोर्टल, जमशेदपुर, झारखंड